Tuesday, April 14, 2009

मेरी भाषा का गुलदस्ता लड़की भूल जाती है




मेरी भाषा का गुलदस्ता

मेरी भाषा का क्या गुलदस्ता बनाओगे
मेरी भाषा के दुरूह लफ्ज कहां ले जाओगे

हरफों के बिना भाषा का मुगल गार्डन
गमलों में रोप रोप के कितना सजाओगे

रोज-रोज जो रख दिए जाते हैं बाहर
उन लफ्जों को और कितना सताओगे

माना कि कबीर ने कहा था कभी नीर
इस नीर को नदी से और कितना दूर हटाओगे

इस वक्त हर स्कूल हरा है टेम्स के पानी से
अर्थ नहीं समझते बच्चों से, आशा लगाओगे

जरा सोच के देखो-मजबूरी के नाम पर जानी
गंगा जमुना का पानी कब तक सुखाओगे




लड़की भूल जाती है



लड़की कागज रख कर भूल जाती है
जैसे शाम दिन को भूल जाती है

उसके हाथों का कागज धूप का टुकड़ा है
लड़की धरती पर धूप का टुकड़ा भूल जाती है

मेरी दुनियायी समझाइशों पे हंस कर
लड़की अपना गम भूल जाती है

डांटता हूं कि सीख जाए दुुनिया जमाने के फसाने
लेकिन अपनी आंखों में रख कर सब भूल जाती है
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

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