ये तीन पत्र अपनी कविताओं पर लिखे थे। मेरी कोशिश है की हर पत्र के साथ कविता भी दूँ... लेकिन कविता आपको कल पोस्ट करूंगा । कर्ण ये है की आज ही मुझे सीडी मिली है । खोज और कन्वर्ट के बाद आपसे अपनी कविता की दुनिया शेयर करता हूँ । वेसे ये पत्र कोलाज संग्रह में भी छपे हैं.
-स्वप्निल
-स्वप्निल
आपकी कविताएं पढ़ीं । बहुत ही व्यस्त जीव हूं। सो अफसोस हुआ कि इस व्यस्तता के चलते कितनी ही काम लायक चीजें पढ़ने से रह जाती हैं।
वार्गथ में कविताएं स्तरीय छपती हैं। पहले भी इसकी दो कविताओं की चर्चा मंचों पर कर चुका हूं। ये कविताएं भी मेरी इसी धारणा को पुष्ट करती हैं। पहली बात यह कि आपकी तीनों कविताओं में कविता है - कमरा जंगल और कूलर में गुणात्मक रूप से ज्यादा , विकासशील देशों के बच्चे में उससे कम , मगर जिन कविताओं की हमें जरूरत है वह पहली कविता है - हमें अपने कदमों पर भरोसा है । इस भरोसे को नजर न लगे कहीं । समाज व जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के विरूद्ध इस कविता का जोश, जिजीविषा , शौर्य और शक्ति का स्वर कुछ अनछुए रागों को छेड़ता हैै।
दूसरी कविता तनिक भिन्न स्वर की है । मगर वही खुद्दारी यहां भी ,कविता के श्रेष्ठतर मानकों पर तरंगायित है - हम कुछ तिनकों के बच्चे हैं
हम कुछ सपनों के बच्चे हैं
हम कुछ तिनकों के बच्चे हैं
कविता यहां जिंदा है ।
तीसरी कविता मूर्तन और अर्मूतन के बीच कमरे के अंदर के यथार्थ को बाहरी दुनिया के यथार्थाें के भावना की लहरियों पर मचलते सेतू का और एक दूसरे की बीच आवागमन , संपूर्ति को बुनती हुई बेहतरीन कविता को नायाब नमूना है । ऐसा काव्यात्मक प्रयोग मेरी नजर में नहीं आया ।
शुभ कामनाओं सहित , आपका
प्रसिद्ध कथाकार संजीव , कुल्टी, प.ब. संजीव
दि. 1.5.2001 को लिखे पत्रोत्तर का अंश
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आपकी एक कविता , तीन गुंबदों के ध्वंश की धूल बहुत अच्छी कविता है । मुझे पसंद है । परन्तु इसमें एक स्थापना इतिहास विरोधी प्रतीत होती है । एक तो कविता की तीसरी लाइन , और छटी लाइन में यह मान लिया गया है कि मंदिर को बाबर ने गिराया था , कविता के अंत में भी इसी का जिक्र है ।
क्या इन लाइनों में कुछ सुधार किया जा सकता है । कृपया पत्र दें।
उदभावना को भेजी कविताओं के
उत्तर में दि. 2.3.2001 को लिखे पत्र से आपका
अजेय कुमार , उदभावना ,
शाहदरा दिल्ली 95
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कथादेश का नवलेखन अंक जब आया में वाराणसी में था. ज्ञानेद्रपति ने भी आपकी कविता पढ़ी और उसके शिल्प की प्रशंसा की । लड़का औैेर विज्ञापन तो मैंने पहले भी कहीं पढ़ ली थी - शायद साक्षात्कार में । लेकिन मैं बताऊं कि मुझे औेर ज्ञानेद्रपति को भी घास वाली कविता ज्यादा अच्छी लगी ।
कोलाज व सूखा वाली कविता का शिल्प एक जैसा है । कोलाज लीक से हट कर एक नया शिल्प लेकर आती है , यही कारण है कि मंगलेश डबराल ने उसकी काफी प्रशंसा की है ।
वैेसेे वह हल्की फुल्की कविता है । किसी बड़े सरोकार को व्यक्त नहीं करती । घास व सूखा करती है । बहरहाल समीक्षकों में मतभेद हो सकते हैं ।
आपका
संजय कुमार गुप्त
युवा आलोचक ,संजय कुमार गुप्त ,बालाघाट
द्वारा दि. 9 .7.2001 को लिखे पत्रोत्तर से
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